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साँची के महान स्तूप का दक्षिणी प्रवेश द्वार |
परिचय
सातवाहन राजवंश, प्राचीन भारत के
महानतम राजवंशों में से एक था| इसका शासनकाल लगभग 235 ई०पू० से 225
ई० का था| इन्होंने 235 ई०पू० से लेकर ईसा के बाद तक दूसरी सदी
तक केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन किया था| सातवाहन वंश की स्थापना
ई०पू० पहली सदी के अन्त में प्रथम शासक सिमुक के द्वारा की गयी थी|
यह वंश, मौर्य वंश के पतन के
बाद शक्तिशाली हो गया था और इन्होंने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित करके दक्षिण-पश्चिम
भारत में अपने राज्य की स्थापना की थी| इनके विषय में उल्लेख 8वीं
सदी ई०पू० में मिलता है| वर्ष 232 ई०पू० में अशोक महान की
म्रत्यु के बाद सातवाहन शासक अत्यधिक शक्तिशाली हो गए थे| सातवाहन
राजवंश, प्रथम राजवंश था, जिसने सीसे के सिक्के चलवाए थे| यह सिक्के
सम्भवतः रोम से लाये जाते थे|
सातवाहन साम्राज्य,
प्राचीन भारत के महानतम एवं शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था| इस साम्राज्य/वंश की
स्थापना, आन्ध्र वंश के शासक सिमुक के द्वारा लगभग 235 ई०पू० में
की गयी थी| 232 ई०पू० में अशोक महान की म्रत्यु के पश्च्यात यह वंश
अत्यधिक शक्तिशाली हो गया था एवं इन्होंने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित करके दक्षिण-पश्चिम
भारत में अपने राज्य की स्थापना की थी| सातवाहन वंश के प्रतापी
एवं शक्तिशाली शासकों ने लगभग 235 ई०पू० से लेकर ईसा के बाद
दूसरी सदी तक लगभग 300-400 वर्षों तक भारत के दक्षिण-पश्चिमी,
दक्षिण-पूर्वी, पश्चिमी मालवा, दक्षिण के भाग विदर्भ अर्थात् आधुनिक
बरार, सुदूर-दक्षिण के कुछ छेत्रों, मध्य-भारत के अधिकांश भागों, आदि
पर सफलतापूर्वक शासन किया था|
निश्चित रूप से आन्ध्र-निवासी, द्रविड़ ही
थे, जिन्हें बाद में आर्यों में सम्मिलित कर लिया गया| अधिकाँश इतिहासकार
एवं पुरातत्त्व-वेत्ता इन्हें ब्राह्मण वंश का मानते हैं| अगर पुरानों में
सातवाहन वंश की व्याख्या को देखा जाये, तो दक्षिण-भारत के इस राजवंश
की सीमायें, उत्तर-भारत तक विस्तृत थीं|
दक्षिणी-भारत तथा उत्तरी-भारत की
मालव, भोज, आन्ध्र, द्रविड़, पठनिक, रधिक, आदि विभिन्न प्रकार की प्रजातियाँ
के समन्वय से ही इस विशाल साम्राज्य का निर्माण हुआ, जिसने मौर्य
साम्राज्य के पतन के बाद, अपनी शक्ति का विस्तार किया और
एक शक्तिशाली एवं स्वतन्त्र साम्राज्य की स्थापना की|
सातवाहन शासकों के शासनकाल में व्यापर,
वाणिज्य, जल परिवहन, आदि छेत्रों का अत्यधिक विकास हुआ| इनके शासनकाल
में कला एवं संस्कृति तथा स्थापत्य कला को भी खासा संरक्षण प्राप्त
था| इनके काल में कला एवं संस्कृति का अत्यधिक विकास हुआ| इनके
द्वारा पश्चिमी-भारत में शिलाओं में तराशी गयी गुहाओं एवं पूर्वी-भारत
में स्तूपों एवं विहारों का निर्माण करवाया गया था| इनके काल
में प्राकृत भाषाओँ को खासा संरक्षण प्राप्त था| इनके शासनकाल में
बोद्ध धर्म का अत्यधिक विकास हुआ|
ऐतिहासिक स्त्रोत
सातवाहन साम्राज्य के विषय में जानकारी
देने वाले साक्ष्यों या स्त्रोतों का खासा आभाव है| इनके विषय में
मुख्य रूप से जानकारी कुछ शिलालेखों में दिए गए सन्दर्भों, अभिलेखों,
सिक्कों एवं स्मारकों आदि से प्राप्त होती हैं| इनमें से कुछ अभिलेख
निम्नलिखित हैं:
- महाराष्ट्र के पूना जिले का नानाघट अभिलेख
- नासिक से प्राप्त गौतमीपुत्र शातकर्णी के दो गुहालेख
- नासिक का गौतमी बलभी का गुहालेख
- वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख
- वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख
- यज्ञश्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख
इन गुहालेखों के अलावा सातवाहन
साम्राज्य के शासनकाल से सम्बन्धित जानकारी हमें पुराणों आदि से
प्राप्त होती है| यद्दपि इनके शासनकाल के विषय को लेकर विद्वानों,
इतिहासकारों एवं पुरातत्त्व-वेत्ताओं में काफी मतभेद हैं| इसके
अतिरिक्त इस वंश से सम्बन्धित अन्य जानकारी हमें पूर्वी-दक्कन से प्राप्त
हुए लगभग 19 शिलालेखों से प्राप्त होती है| जिनसे हमें सातवाहन
साम्राज्य के लगभग 30 शासकों और लगभग 300-400 वर्षों के उनके
शासनकाल की जानकारी प्राप्त होती है|
इस वंश के विषय में हमें महत्तवपूर्ण
जानकारी, इस साम्राज्य के शासकों द्वारा चलवाए गए सिक्कों से
प्राप्त होती है, जो पूर्वी तथा पश्चिमी-दक्कन एवं मध्य प्रदेश से
प्राप्त हुए हैं| इस वंश के विषय में अन्य जानकारी हमें सातवाहन शासनकाल में
रचित लीलावती, जोकि सैनिक अभियानों एवं विजयों से सम्बन्धित
कृति है एवं सातवाहन शासकों के संरक्षण में गुणाढ्य द्वारा
रचित कृति बृहद कथा के अलग-अलग विद्वानों के संस्करणों आदि
से प्राप्त होती हैं|
मूल मिवास
सातवाहन लोग कहाँ के मूल निवासी थे,
इस विषय को लेकर भी विद्वानों एवं इतिहासकारों में काफी मतभेद हैं| कुछ
विद्वानों एवं इतिहासकारों ने इन्हें आन्ध्र वंश का माना है
तथा इन्हें आन्ध्र देश का मूल निवासी माना है| तो वहीँ ऐतरेय
ब्राह्मण में इनका उल्लेख आर्यों के प्रभाव से मुक्त जाति के रूप में
मिलता है|
कुछ विद्वान इन्हें द्रविड़ भी
मानते हैं| तो वहीँ पर कुछ विद्वान इन्हें आर्यों में सम्मिलित करते
हैं| कुछ विद्वान एवं इतिहासकार इन्हें ब्राहमण-वंश का भी
मानते हैं| मैगस्थानिज ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इण्डिका में इनकी
शक्ति एवं समृद्धि का उल्लेख किया है| अशोक महान के शिलालेखों
में इनका उल्लेख ऐसे लोगों के रूप में किया गया है, जोकि अशोक के साम्राज्य
के अधीन थे|
कुछ विद्वान एवं इतिहासकार
इन्हें आन्ध्र प्रदेश का मूल निवासी मानते हैं, परन्तु सातवाहनों
के आन्ध्र के साथ सम्बन्ध को लेकर विद्वानों एवं इतिहासकारों
में काफी मतभेद हैं| सातवाहन साम्राज्य के प्राप्त हुए शिलालेखों,
अभिलेखों, आदि में इस वंश के शासकों का वर्णन सातवाहन एवं
शातकर्णी के रूप में मिलता है| ऐतहासिक स्त्रोतों के रूप में
प्राप्त हुए सिक्कों, शिलालेखों, अभिलेखों, आदि के आधार पर कुछ विद्वान एवं
इतिहासकार, सातवाहनों को पश्चिमी भारत का मूल निवासी मानते
हैं|
इसका प्रमाण हमें पूना जिले के नानाघट
अभिलेख एवं साँची मध्य प्रदेश के प्रारम्भिक अभिलेखों आदि से
प्राप्त होता है| कुछ इतिहासकार, बैल्लारी जिले को, कुछ देश के दक्षिणी भाग
को तथा कुछ ने बरार प्रदेश को सातवाहनों का मूल निवास स्थान माना
है| कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सातवाहन वंश के लोग दक्कन के
मूल निवासी थे, जो बाद में साम्राज्य विस्तार करते-करते आन्ध्र
प्रदेश पहुँचे तथा वहीँ पर बस गए|
कुछ अन्य विद्वानों एवं इतिहासकारों
का मानना है कि जब शकों एवं अन्य आक्रमणकारियों के द्वारा किये
गए आक्रमणों के कारण इनके साम्राज्य के पश्चिमी तथा उत्तरी
क्षेत्र, इनसे छीन लिए गए और इनका साम्राज्य, गोदावरी तथा कृष्णा
नदियों के मध्य क्षेत्र अर्थात आन्ध्र प्रदेश तक ही सीमित होकर रह गया
एवं जिसके बाद उन्हें आन्ध्र शासकों के नाम से जाना गया|
सातवाहन वंश के प्रमुख
शासक
सातवाहन राजवंश के अंतर्गत लगभग 30
शासक हुए| जिन्होंने लगभग 300-400 वर्षों के लम्बे काल तक शासन किया| इनमें
से कुछ प्रमुख शक्तिशाली एवं प्रभावशाली शासकों के विषय में वर्णन निम्न
प्रकार से है:
- सिमुक: 100 ई०पू० से पहले
- कृष्णा/कान्हा: 100-70 ई०पू०
- शातकर्णी प्रथम: 70-60 ई०पू०
- शातकर्णी द्वितीय: 50-25 ई०पू०
- हाल: 20-24 ई०
- गौतमीपुत्र शातकर्णी: 86-110 ई०
- वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी: 110-138 ई०
- यज्ञश्री शातकर्णी: 152-181 ई०
सिमुक
सिमुक, सातवाहन राजवंश का प्रथम शासक था,
जिसने इस राजवंश/साम्राज्य की स्थापना की थी| ऐतिहासिक स्त्रोतों
के आधार पर सिमुक लगभग 100 ई०पू० से पहले हुआ था| पुरालेखी
साक्ष्यों के आधार पर सिमुक, पहली शताब्दी ई०पू० में हुआ था| सिमुक के
विषय में हमें अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती है|
सिमुक ने सातवाहन साम्राज्य
पर लगभग 23 वर्षों तक शासन किया था| सिमुक के विषय में हमें पुराणों
से ज्ञात होता है कि उसने कण्व शासकों की शक्ति को समाप्त करके एवं कुछ
बचे हुए शुंग मुखियाओं का दमन करके सातवाहन साम्राज्य की स्थापना
की थी| जैन अनुश्रुतिओं के अनुसार, सिमुक ने जैन धर्म को
स्वीकार किया था|
सिमुक ने अपने शासनकाल में जैन
मन्दिरों एवं बौद्ध मन्दिरों का निर्माण भी करवाया था| परन्तु, अपने
जीवन के अंतिम वर्षों में वह अत्यधिक क्रूर एवं अत्याचारी
हो गया था, जिसके कारण उसे पद से हटा दिया गया तथा बाद में उसकी हत्या करवा दी
गयी| पुराणों में प्रथम आन्ध्र/सातवाहन शासक को शिवमुख, सिसुका, सिन्धुका,
छीमसाका, शिप्राका, श्रीमुख, आदि नामों से जाना जाता है|
कृष्णा/कान्हा
सिमुक की मृत्यु के बाद उसका
भाई, कृष्णा/कान्हा, उत्तराधिकारी हुआ| नासिक के शिलालेखों से
ज्ञात होता है कि कृष्णा के शासनकाल में सातवाहन साम्राज्य का विस्तार,
पश्चिम में नासिक तक हो गया था| इसने लगभग 18 वर्षों तक सातवाहन
साम्राज्य पर शासन किया था|
शातकर्णी प्रथम
कृष्णा के बाद शातकर्णी
प्रथम, सातवाहन राजवंश की राजगद्दी पर बैठा| पुराणों के अनुसार,
शातकर्णी प्रथम कृष्णा का पुत्र था| परन्तु कुछ इतिहासकार उसे सिमुक का
पुत्र मानते हैं| नासिक के नानाघट शिलालेख के अनुसार, 70-60
ई०पू० में हुआ था|
शातकर्णी प्रथम, सातवाहन
शासकों में शातकर्णी की उपाधि धारण करने वाला प्रथम शासक था| महाराष्ट्र
के पूना जिले के नानाघट शिलालेख के अनुसार, शातकर्णी प्रथम ने
अपने शासनकाल में एक राजसूय यज्ञ एवं दो अश्वमेघ यज्ञ किये थे तथा
अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया था| शातकर्णी प्रथम ने दक्षिण
पथपति, अप्रतिहत चक्र, आदि उपाधियाँ भी धारण की थीं|
शातकर्णी प्रथम की रानी, नयनिका के
एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि शातकर्णी प्रथम ने पश्चिमी मालवा
के साथ-साथ नर्मदा घटी का क्षेत्र तथा विदर्भ (बरार) प्रदेशों को
जीत कर सातवाहन साम्राज्य में सम्मिलित किया था|
शातकर्णी द्वितीय
शातकर्णी द्वितीय का शासनकाल लगभग 50-25
ई०पू० का था| यह सातवाहन साम्राज्य का चौथा शासक था| इसने दक्कन
प्रदेश पर शासन किया था| शातकर्णी द्वितीय ने शुंगों एवं कण्वो
को पराजित करके पूर्वी मालवा पर विजय प्राप्त की थी|
साँची में राजा श्री
शातकर्णी के तहत एक समर्पित शिलालेख, शातकर्णी द्वितीय के समय का माना
जाता है| शातकर्णी द्वितीय का वर्णन हाथीगुम्फा तथा भीलसा के
शिलालेखों से प्राप्त होता है|
हाल
हाल का शासनकाल लगभग 20-24
ई० माना जाता है| मत्स्य पुराण में हाल को सातवाहन साम्राज्य
का 17वां शासक बताया गया है| शातकर्णी प्रथम के बाद हाल,
सातवाहन साम्राज्य का अगला यशस्वी शासक हुआ| हाल के सेनापति,
विजयानन्द ने अपने स्वामी के आदेश से लंका पर चढ़ाई करके जीत प्राप्त
की|
ऐसा माना जाता है कि इस विजय अभियान से लौटते
समय वह कुछ समय के लिए सप्त गोदावरी भीमम नामक स्थान पर रुका था| यहाँ पर विजयानन्द
ने लंका के राजा की पुत्री, लीलावती के विषय में पता चला, जिसकी चर्चा
उसने अपने स्वामी राजा हाल से की| सम्भवतः राजा हाल ने कालान्तर में
लंका के शासक की पुत्री, लीलावती से विवाह कर लिया था| हाल ने
प्राकृत भाषा में मथासप्तशती नामक ग्रन्थ की रचना की थी| हाल के
दरबार में वृहत कथा के रचयिता गुणाढ्य तथा मातन्त्र नामक व्याकरण
ग्रन्थ के लेखक शर्ववर्मन को संरक्षण प्राप्त था|
सातवाहन साम्राज्य का
उत्कर्ष: गौतमी पुत्र शातकर्णी
सातवाहन साम्राज्य के शासकों में गौतमी
पुत्र शातकर्णी सबसे महान एवं शक्तिशाली शासक था| गौतमी पुत्र शातकर्णी,
सातवाहन साम्राज्य का 23वाँ शासक था| गौतमी पुत्र शातकर्णी ने सातवाहन
साम्राज्य पर दूसरी शताब्दी में शासन किया था|
गौतमी पुत्र शातकर्णी ने वर्तमान भारत के
दक्कन क्षेत्र में शासन किया था| सातवाहन साम्राज्य पर उसके शासनकाल
की सटीक अवधि तो ज्ञात नहीं है, परन्तु विभिन्न स्त्रोतों के आधार पर सातवाहन
राजवंश पर इसके शासनकाल को निम्न प्रकार से दिनांकित किया जा सकता है:
- 86-110 ई०
- 103-127 ई०
- 106-130 ई०
सातवाहन साम्राज्य के महान शासक गौतमी
पुत्र शातकर्णी के विषय में हमें जानकारी प्रमुख रूप से उसके सिक्कों,
शिलालेखों, अभिलेखों, पुराणों, आदि में वर्णित तथ्यों से मिलती है| इसमें सबसे
प्रसिद्ध स्त्रोत, उनकी माता गौतमी बालाश्री का नासिक प्रशस्ति
(स्तवन) शिलालेख है|
दक्षिण भारत की राजनीति में गौतमी
पुत्र शातकर्णी के शासनकाल की मुख्य विशेषता सातवाहनों एवं शकों के
मध्य संघर्ष थी| सातवाहन राजवंश की शक्ति को शक शासक, नह्पान ने
अत्यधिक हानि पहुँचाई थी| गौतमी पुत्र शातकर्णी को सातवाहन साम्राज्य की
शक्ति को पुनः स्थापित करने के लिए जाना जाता है|
गौतमी पुत्र शातकर्णी ने शक, यूनानी एवं
पार्शियन शक्तियों का नाश करके सातवाहन साम्राज्य का अत्यधिक
विस्तार किया था| सम्भवतः गौतमी पुत्र शातकर्णी ने 124-125 ई० में
शक शासक, नह्पान को पराजित करके उसके साम्राज्य/राज्य के अधिकांश भाग पर
अधिकार करके उसे सातवाहन साम्राज्य में मिला लिया था और चाँदी के
सिक्कों पर अपना नाम उत्कीर्ण कराया था|
गौतमी पुत्र शातकर्णी ने शकों से सौराष्ट्र,
गुजरात, पश्चिमी राजपुताना, मालवा, बरार एवं उत्तरी कोंकण को प्राप्त
करके सातवाहन साम्राज्य में सम्मिलित किया था|
गौतमी पुत्र शातकर्णी ने राजराजा,
विन्धयापति, वेंकटकस्वामी, आदि उपाधियाँ धारण की थीं| इसके साथ ही उसने वेंकटक
नामक नगर की स्थापना भी की थी| गौतमी पुत्र शातकर्णी के निम्नलिखित तीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे हमें गौतमी पुत्र शातकर्णी और उसके काल
में सातवाहन साम्राज्य के विषय में जानकारी प्राप्त होती है:
- नासिक से प्राप्त गौतमी पुत्र शातकर्णी के दो गुहालेख
- कार्ले से प्राप्त गौतमी पुत्र शातकर्णी का अभिलेख
गौतमी पुत्र शातकर्णी की सैनिक विजयों की
जानकारी हमें उनकी माँ गौतमी बालाश्री की नासिक प्रशस्ति से मिलती
है| गौतमी पुत्र शातकर्णी की धार्मिक कार्यों के प्रति भी खासी रूचि
थी| उसने नासिक के बोद्ध संघ को अजकालकिय नामक क्षेत्र दान
में दिया था तथा कार्ले के भिक्षु संघ को करजक नामक ग्राम
दान में दिया था|
गौतमी पुत्र शातकर्णी के शासनकाल में सातवाहन
साम्राज्य, उत्तर में मालवा और सौराष्ट्र से लेकर दक्षिण में
कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में बरार से लेकर पश्चिम में
कोंकण तक विस्तृत था| परन्तु, अपने अन्तिम समय में गौतमी पुत्र शातकर्णी
अपाहिज हो गये| उनके जीवन के अन्तिम समय में शकों की शक्ति में पुनः
वृद्धि हो गयी तथा गौतमी पुत्र शातकर्णी ने जिन प्रदेशों/राज्यों को विजित
करके अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया था, उसे शकों ने पुनः प्राप्त कर
लिया था| 130 ई० में गौतमी पुत्र शातकर्णी की मृत्यु हो गयी थी|
अतः कहा जा सकता है कि गौतमी पुत्र
शातकर्णी के शासनकाल में सातवाहन साम्राज्य का अत्यधिक विकास हुआ| गौतमी
पुत्र शातकर्णी के शासनकाल में सातवाहन साम्राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली
एवं समृद्ध साम्राज्य था| गौतमी पुत्र शातकर्णी न केवल एक महान योद्धा था,
बल्कि एक बेहद बुद्धिमान, यसश्वी, शक्तिशाली और लोकप्रिय शासक भी था| वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी के नासिक अभिलेख में गौतमी पुत्र शातकर्णी के व्यक्तित्व,
कृतित्व एवं आदर्श चरित्र का वर्णन मिलता है| गौतमी पुत्र शातकर्णी को
त्रि-समुद्र-तोय-पिता-वाहन भी कहा जाता था अर्थात् उसके घोड़ों ने तीन
समुद्रों का पानी पिया था|
गौतमी पुत्र शातकर्णी के
उत्तराधिकारी
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी
गौतमी पुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी, सातवाहन राजवंश की राजगद्दी पर बैठा| सातवाहन
साम्राज्य पर इसका शासनकाल लगभग 130-159 ई० था| वासिष्ठी पुत्र
पुलुमावी को पुराणों में पुलोमा, पुरोमानि एवं पुलोमावि कहा
गया है|
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी
को पहला आन्ध्र
शासक माना गया है| अमरावती से प्राप्त एक लेख से हमें वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी के विषय में जानकारी मिलती है| वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी के
शासनकाल में ही अमरावती बोद्ध स्तूप के चारों ओर वेष्टिनी का
निर्माण करके स्तूप को सम्वर्धित किया गया था|
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी
एकमात्र ऐसा सातवाहन
शासक था, जिसके विषय में अमरावती से प्राप्त लेख में उल्लेख मिलता है| वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी का विवाह महाक्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री से हुआ था| पुलुमावी
को दक्षिणापथेश्वर भी कहा जाता था, क्योंकि उसके उत्तर-पश्चिमी भाग पर
शकों की शक्ति का लगातार विस्तार हो रहा था और इस दिशा में पुलुमावी ने
अपने राज्य के पर्याप्त भागों को खो दिया था|
सौराष्ट्र, गुजरात,
मालवा, राजपुताना, आदि अवश्य ही सातवाहनों के पास नहीं रहे थे, परन्तु वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी ने दक्षिण-पूर्व में अपने राज्य की सीमाओं में खासी
वृद्धि की थी| आन्ध्र प्रदेश की विजय केवल गौतमी पुत्र शातकर्णी और वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी के समय में ही हुयी थी|
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी
के समय में सातवाहन
साम्राज्य की नौसेना शक्ति और समुद्री व्यापर में अत्यधिक
वृद्धि हुयी थी| वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी के काल के प्राप्त हुए कुछ सिक्कों
पर दो पतवारों वाले जहाज का चित्र बना हुआ है, जो सातवाहन साम्राज्य
की नौ-सैनिक शक्ति के पूर्ण विकसित होने के प्रमाण देते हैं| वासिष्ठी
पुत्र पुलुमावी ने नवलगढ़ नामक नवीन नगर बसाया था नगरस्वामी की
उपाधि धारण की थी| वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी का शासनकाल सातवाहन
साम्राज्य की आर्थिक सम्पन्नता और समृद्धि का काल था|
यज्ञश्री शातकर्णी
यज्ञश्री शातकर्णी का काल लगभग 174-203
ई० का था| यह वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी के बाद सातवाहन राजवंश का
अगला सफल और शक्तिशाली शासक हुआ| वैसे तो वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी के बाद
और भी सातवाहन शासक हुए, परन्तु सम्भवतः शक शासकों की शक्ति में
हुयी वृद्धि के कारण वे उनका सामना नहीं कर सके और इसी कारण से उनका समय
महत्तवपूर्ण नहीं रहा|
वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी
के बाद यज्ञश्री
शातकर्णी ही एकमात्र ऐसा शक्तिशाली और सफल सातवाहन शासक हुआ, जिसने शक-शासकों
को पराजित किया| यज्ञश्री शातकर्णी के शासनकाल में सातवाहन
साम्राज्य में महाराष्ट्र, उत्तरी कोंकण और आन्ध्र प्रदेश सम्मिलित
थे|
यज्ञश्री शातकर्णी के बाद के शासक,
विदेशी आक्रमणों एवं आन्तरिक संघर्षों के कारण काफी दुर्बल हो गए थे और
अन्ततः सातवाहन साम्राज्य का पतन हो गया, जोकि दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली
और समृद्ध राज्य था|
सातवाहन साम्राज्य:
राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था
सातवाहन शासकों के काल में यह साम्राज्य,
भारत के अत्यधिक शक्तिशाली एवं सम्रद्धशाली राज्यों में से एक
था| इस विशाल साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था भी काफी अच्छी थी| सातवाहन
साम्राज्य में राजा, राज्य का प्रधान होता था अर्थात् राज्य की समस्त
शक्तियाँ राजा के पास निहित होती थीं| सातवाहन शासक, राज्य का शासन,
धर्मं-शास्त्रों के आधार पर किया करते थे|
सातवाहन शासकों का प्रमुख
उत्तरदायित्व, अपने राज्य की सुरक्षा करना, सेना का
नेतृत्व करना और साम्राज्य विस्तार करना था| सातवाहन राजवंश के शासकों
ने राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्त का समर्थन नहीं किया,
अपितु इन शासकों में से अधिकाँश विन्धयापति, राजन, राजराजा, आदि उपाधियों
से ही सन्तुष्ट रहे| इनमें से कुछ राजाओं ने अपने शासनकाल में राजसूय यज्ञ और
अश्वमेघ यज्ञ भी करवाए थे| परन्तु, सातवाहन साम्राज्य के राजाओं में
से कोई भी स्वेच्छाचारी नहीं था|
सातवाहन साम्राज्य में प्रशासनिक
कार्यों एवं राजा की सहायता आदि के लिए विभिन्न पदों की व्यवस्था
थी, जो निम्नलिखित है:
अमात्य
अमात्य, राजा की सहायता करने
वाले मुख्य अधिकारी थे| वे, सम्भवतः आहारों (जिलों) के प्रधान रहे
होंगे|
राजामात्य
राजामात्य, वे अधिकारी थे, जो राजा
की सेवा में नियुक्त किये जाते थे| ये लोग राजा को राज्य के प्रशासनिक कार्यों में
सलाह देते थे|
महामात्र
सातवाहन साम्राज्य में इनकी नियुक्ति किसी
विशेष कार्य की पूर्ति हेतु की जाती थी|
भण्डागारिक
ये भण्डार के प्रधान होते थे|
हेरनिका
ये राज्य के खजान्ची होते थे|
लेखक
लेखक, राज्य का सचिव था, जो राजा के आदेशों
को लिखने का कार्य करता था|
महासेनापति
यह सेना का प्रधान होता था|
इन पदों के अतिरिक्त भी सातवाहन साम्राज्य
में अन्य प्रशासनिक कार्यों के लिए प्रशासनिक पदों की व्यवस्था थी| सम्पूर्ण
सातवाहन साम्राज्य, जनपदों और जनपद आहारों, अर्थात् जिलों में
विभाजित थे| महारथी और महाभोज, अधीन शासक थे, जिन्होंने स्वतन्त्र
रूप से भूमि अनुदान में दे दी थी| महारथी, पश्चिमी घाट के ऊपर के
क्षेत्रों में शासन करते थे, जबकि महाभोज, उत्तरी कोंकण के क्षेत्र में
शासन करते थे|
सातवाहन साम्राज्य के नगरों में निगम
(नगरपालिकाएं) और गाँवों में ग्राम-सभाओं की व्यवस्था थी| जो सातवाहन
साम्राज्य के काल में प्रशासन की सहायता करती थीं| सातवाहन
साम्राज्य के गाँवों में ग्रामिक नामक प्रशासनिक अधिकारी होता
था|
सातवाहन साम्राज्य के प्रमुख व्यापारिक
केंद्र कान्हेरी, सोपारा, कल्याण, पैथान, जुनार, टगरा, गोवर्धन, कार्ले, आदि नगर
थे| इन सभी नगरों में निगम (नगरपालिकाएं) विद्यमान थीं| सातवाहन
साम्राज्य में निगम और ग्राम-सभाओं को प्रशासन में काफी स्वतन्त्रता
प्राप्त थी|
प्रत्येक आहार (जिले) में एक सैनिक
छावनी होती थी, जिसे कटक कहा जाता था| इसका प्रमुख कार्य राज्य की
सुरक्षा करना और राज्य के भीतर शान्ति-व्यवस्था बनाए रखना था| सातवाहन
साम्राज्य में लगान, व्यापार, नमक के व्यापार का एकाधिकार, अधीन शासकों के
उपहार, आदि राज्य की आय के प्रमुख साधन थे|
इतिहास में सातवाहन शासकों का शासन-प्रबन्धन
बहुत अच्छा माना गया है| सम्भवतः जागीरदारी व्यवस्था का प्रारम्भ, सातवाहन
शासकों के समय से हुआ था| इसका प्रमाण हमें सबसे पहले जिस अभिलेख
से प्राप्त होता है, वह ई०पू० पहली सदी का है| सातवाहन साम्राज्य में
जागीरदारी प्रथा का प्रमुख उद्देश्य राज्य में कृषि-योग्य भूमि में
वृद्धि करना था|
दान में ज्यादातर ऐसी भूमि ही दी जाती थी,
जिसे खेती योग्य बनाया जा सके| दान में भूमि प्राप्त करने वाले व्यक्ति को भूमि का
स्वामी बना दिया जाता था|
सातवाहन साम्राज्य:
सामाजिक व्यवस्था
सातवाहन साम्राज्य, में समाज चार
वर्गों में विभाजित था| जाति-विभाजन के अतिरिक्त समाज के विभाजन का अधिकार आर्थिक
भी था| आर्थिक आधार पर पहले वर्ग में जिलों और जनपदों के अधिकारी जैसे
महाभोज, महारथी, महासेनापति, आदि थे|
दूसरे वर्ग में अमात्य, महामात्र,
व्यापारी, श्रेष्ठी, आदि सम्मिलित थे| तीसरे वर्ग में वेद्य, लेखक, सुनार,
किसान, आदि थे और चौथे वर्ग में बढई, लुहार, जुलाहे, आदि सम्मिलित थे| समाज
की मुख्य इकाई परिवार का सबसे वयोवृद्ध पुरुष गृहपति कहलाता था तथा परिवार
के सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे| संयुक्त-परिवार प्रणाली, सातवाहन
साम्राज्य में प्रचलित थी|
अमरावती से प्राप्त विभिन्न अभिलेखों
से सिद्ध होता है कि पिता, पत्नी, भाई, बहिन, पुत्री, पुत्र, आदि ने
सामूहिक रूप से विभिन्न प्रकार की दान-दक्षिणा दी थी| समाज में स्त्रियों का
सम्मान था| सातवाहन शासकों के नामों का उनकी माँ के नाम से प्रारम्भ होना
इस बात का प्रमाण है कि सातवाहन साम्राज्य में स्त्रियों की स्तिथि काफी
अच्छी थी|
गौतमी पुत्र शातकर्णी की विधवा पत्नी ने अपने
पुत्रों की संरक्षिका बनकर, सातवाहन साम्राज्य पर शासन किया था| अनेक
ऐसे अभिलेख प्राप्त होते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि स्त्रियों ने
स्वतन्त्र रूप से बहुमूल्य पदार्थ एवं वस्तुएं दान में दी थीं| हिन्दुओं ने
शकों से विवाह किये थे| विदेश यात्राओं पर कोई रोक नहीं थी| विधवाओं
का जीवन भी सम्मानित था और जीवन का द्रष्टिकोण आशावादी था|
स्त्री-पुरुष धोती का प्रयोग करते थे
और वही एकमात्र वस्त्र था| पुरुष कभी-कभी पगड़ी का प्रयोग भी करते
थे| वस्त्रों की तुलना में आभूषणों का प्रयोग अधिक था और
स्त्री-पुरुष दोनों कंठहार, कड़े, कुण्डल और चूड़ियों का प्रयोग करते
थे| आभूषणों में सोने का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में किया जाता था|
सातवाहन साम्राज्य:
आर्थिक व्यवस्था
आर्थिक द्रष्टि से सातवाहन शासकों का
काल सम्पन्नता और समृद्धि का था| व्यक्तियों के मुख्य उद्योग कृषि,
व्यापर और शिल्प थे| भारत के पूर्वी तथा पश्चिमी
समुद्र-तट का पर्याप्त भाग सातवाहन शासकों के अधीन था| इस कारण सातवाहन
साम्राज्य के नागरिक, दक्षिण-पूर्वी एशिया तथा पश्चिमी देशों के
साथ व्यापार करते थे|
भडौंच, कल्याण, सोपाल,
आदि मुख्य बन्दरगाह थे| सूती कपड़ा, मलमल, मसाले, चमड़ा, औषधियाँ,
रेशम, हाथीदांत, नील, मोती, आदि वस्तुएं विदेशों को निर्यात की जाति थीं| राज्य
में सड़कों के द्वारा यातायात एवं परिवहन होता था| रोम-सम्राट,
आगस्टस (30 ई०पू०) के समय से दक्षिण भारत के रोमन साम्राज्य से व्यापारिक
सम्बन्ध प्रारम्भ हो गये थे| मिस्त्र और अरब के व्यापारी
बहुत बड़ी संख्या में व्यापार में मध्यस्था निभाते थे|
दक्षिण भारत के दक्षिण-पूर्वी और
उत्तर-पश्चिमी भागों में विभिन्न स्थानों से बहुत बड़ी संख्या में रोमन
सिक्के प्राप्त हुए हैं, जो इस बात के प्रमाण हैं कि सातवाहन शासकों और
शाल शासकों के समय में दक्षिणी भारत और पश्चिमी भारत के रोमन
साम्राज्य के साथ बहुत अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध थे| सातवाहन शासक,
पुलुमावी द्वितीय और यज्ञश्री के काल में सातवाहन साम्राज्य में
व्यापार एवं वाणिज्य अपनी चरम-सीमा पर थे|
व्यापारियों के संघ/श्रेणियाँ थीं,
जोकि आधुनिक बैंकों की तरह कार्य करती थीं| ये श्रेणियाँ 9% से 12%
ब्याज पर धन जमा करती थीं और ब्राहमणों को 2% पर, क्षत्रियों
को 3% पर, वैश्यों को 4% पर तथा शूद्रों को 5%
ब्याज पर धन देती थीं| कारीगरों के अपने प्रथक संघ अथवा श्रेणियाँ
थीं| सिक्के सोने, चाँदी व तांबे के बनते थे| सोने के सिक्के
को सुवर्ण और चाँदी तथा तांबे के सिक्कों को कार्षापण
पुकारते थे|
सातवाहन साम्राज्य:
धार्मिक स्थिति
सातवाहन साम्राज्य के शासक हिन्दू धर्म के
समर्थक थे| परन्तु, वे अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु थे और सभी
को संरक्षण और दान देते थे| हिन्दू तथा बोद्ध धर्मं को
अधिक मान्यता प्राप्त थी| हिन्दू देवताओं में प्रजापति, इन्द्र,
श्रीकृष्ण, वरुण, यक्ष, कुबेर, सूर्य, विष्णु, आदि की मुख्य रूप से पूजा होती
थी|
शिवजी को एक महत्तवपूर्ण
देवता माना जाता था| सातवाहन साम्राज्य में नाग-पूजा भी खासी
प्रचलित थी| सातवाहन साम्राज्य के कुछ शासकों ने राजसूय यज्ञ तथा अश्वमेघ
यज्ञ भी करवाए थे| सातवाहन साम्राज्य के शासक, धर्म-शास्त्रों
के आधार पर ही साम्राज्य पर शासन किया करते थे|
विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना
करना, तीर्थ यात्रायें करना, दान-दक्षिणा देना, आदि कार्यों का भी काफी
प्रचलन था| इसके अतिरिक्य कुएँ-तालाब खुदवाना, पेड़-पौधे लगवाना, आदि
को भी पुण्य के कार्य माना जाता था| सातवाहन साम्राज्य के काल में बोद्ध
धर्मं भी दक्षिण भारत में एक लोकप्रिय धर्मं था|
सातवाहन शासकों ने बोद्ध धर्म को
भी दान दिए थे| नासिक की गुफा नं० 2 को गौतमी पुत्र की
माँ बालाश्री ने भद्रायन भिक्षुक-संघ को दान में दिया था और कार्ले
की गुफा का निर्माण वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी ने महासंघिक के
लिए कराया था| जैन धर्म का प्रसार दक्षिण भारत में 400 ई०पू० में
ही हो गया था| जैन धर्म भी सातवाहन साम्राज्य का एक लोकप्रिय धर्म
था| अनेक विदेशियों को हिन्दुओं और बोद्धों ने अपने धर्म में
सम्मिलित किया था|
सातवाहन साम्राज्य: कला
एवं साहित्य
सातवाहन साम्राज्य के शासकों के काल में कला
एवं साहित्य अत्यधिक उन्नति पर थी| सातवाहन शासकों ने प्राकृत
भाषा को खासा प्रोत्साहन दिया था| राजा हाल द्वारा रचित गाथासप्तशती,
गुणाढ्य की वृहत कथा एवं शर्ववर्मा का प्राकृत भाषा का व्याकरण-ग्रन्थ,
सातवाहन साम्राज्य के समय के साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते
थे|
वृहत कथा तो अब उपलब्ध नहीं है,
परन्तु सोमदेव का कथासरितसागर, क्षेमचन्द्र का वृहत्कथामंजरी और
बुद्धस्वामिन का वृहत्कथा श्लोक-संग्रह एक प्रकार से संस्कृत
भाषा में उसके अनुवाद हैं| प्राकृत भाषा के अतिरिक्त सातवाहन
साम्राज्य में संस्कृत भाषा का भी महत्वपूर्ण स्थान था| कला की
द्रस्थी से पश्चिमी घाट में निर्मित विभिन्न चैत्य अर्थात् बौद्धों
के पूजास्थल और दरी-गृह अर्थात् भिक्षुओं के निवास-स्थान इस काल
के श्रेष्ठ नमूने हैं| कार्ले, नासिक, कन्हेरी के दरी-गृह और चैत्य,
सातवाहन साम्राज्य के काल में ही बनवाए गए थे| सातवाहन शासकों के
द्वारा स्तूपों, स्त्री-पुरुषों, आदि की मूर्तियों का निर्माण भी करवाया
गया था| मूर्ति-कला में अमरावती शैली का खासा प्रयोग किया गया था| मूर्ति-कला
के विकास में सातवाहन शासकों का खासा योगदान था| सातवाहन शासकों ने
अपने काल में कला, साहित्य एवं संस्कृति को खासा प्रोत्साहन तथा
संरक्षण प्रदान किया था|
तो दोस्तों, आशा करता हूँ कि सातवाहन
साम्राज्य के ऊपर मेरे द्वारा लिखा गया यह लेख आपको पसन्द आया होगा| मेरा
प्रयास है कि मैं विभिन्न विषयों से सम्बन्धित जानकारियों को इसी प्रकार से अपने लेखों
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