कैसे हैं आप सब? आशा करता हूँ कि आप सभी अच्छे होंगे| काफी समय से मेने अपनी वेबसाइट पर इतिहास से सम्बन्धित कोई लेख प्रकाशित नहीं किया था| काफी समय से अपनी नयी वेबसाइट की कोडिंग और डिजाइनिंग में व्यस्त होने के कारण और अपने कुछ अन्य निजी कार्यों में व्यस्त होने के कारण मैं इतिहास और अन्य विषयों से सम्बन्धित लेखन नहीं कर पा रहा था|
परन्तु, कल रात में एक किताब पढ़ते-पढ़ते मुझे इतिहास से सम्बन्धित कुछ लिखने का मन किया, तो मैं रात्रि में ही ये लेख लिखने बैठ गया| इसका कुछ भाग मेने रात्रि में पूर्ण किया और कुछ आज सुबह| और अब ये लेख मैं आप सब के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ| जैसा कि आपको इस लेख के टाइटल से पता चल ही गया होगा कि आजका यह लेख ‘पुनर्जागरण’ अर्थात “पुनर्जागरण आन्दोलन” पर आधारित है|
‘पुनर्जागरण’ अर्थात् ‘रिनेशा’ का विश्व इतिहास में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है| ‘पुनर्जागरण’ का प्रारम्भ यूरोपीय देशों से हुआ और धीरे-धीरे इसका प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हुआ, जिसने लोगों को पुरानी विचारधारा से ऊपर उठकर, ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित किया और जन मानस में एक नयी चेतना का प्रसार किया|
तो, क्या था ये ‘पुनर्जागरण’? इसका विकास कैसे हुआ? और इसके विभिन्न चरण क्या थे? आज के इस लेख में हम इन्ही तथ्यों का अध्ययन करेंगे| तो, आइये विस्तार से जानते हैं, क्या था ‘पुनर्जागरण’?
परिचय
‘पुनर्जागरण’ अथवा ‘रिनेशा’ का शाब्दिक अर्थ होता है, “फिर से जागना”| 14वीं और 15वीं शताब्दी के बीच यूरोप में जो सांस्कृतिक प्रगति हुयी, उसे ही “पुनर्जागरण” कहते हैं| इसके फलस्वरूप जीवन के हर क्षेत्र में एक नयी चेतना आई| यह आन्दोलन केवल पुराने ज्ञान के उद्धार तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इस युग में कला, साहित्य, विज्ञानं, खगोलशास्त्र, आदि विषयों में कई नवीन प्रयोग भी हुए| नए अनुसन्धान हुए और ज्ञान प्राप्ति के नए-नए रास्ते खोज निकले गए| इसने ‘परलोकवाद’ और ‘धर्मंवाद’ के स्थान पर ‘मानवतावाद’ को स्थापित किया|
अब लोग ज्ञान के आधार पर अपने सामंती संघटनों और चर्च के द्वारा बनाये गए नियमों पर संदेह करने लगे| इसके परिणामस्वरूप “वैज्ञानिक पद्वति” का जन्म हुआ| अब यूरोप वासियों ने सामंतों और चर्च द्वारा स्थापित किये गए अन्धविश्वास से पूर्ण नियमों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया| जिससे चर्च और सामंती व्यवस्था को बड़ा झटका लगा|
पुनर्जागरण वह आन्दोलन था, जिसके द्वारा पश्चिमी राष्ट्र मध्य युग से निकलकर आधुनिक युग के विचार और जीवन शैली अपनाने लगे| यूरोप के निवासियों ने भौगोलिक, सामाजिक, व्यावसायिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों में प्रगति की| इस युग के लोगों ने पुरानी संकीर्ण सोच को त्यागते हुए स्वयं को नवीन खोजों, नवीन आविष्कारों, नवीनतम विचारों, साहित्य रचना, नवीन दृष्टिकोण, आदि में विकसित किया|
इस प्रकार ‘पुनर्जागरण’ उस ‘बौद्धिक आन्दोलन’ का नाम है, जिसने रोम और यूनान की प्राचीन सभ्यता / संस्कृति का पुनरुद्धार कर नयी चेतना को जन्म दिया|
कुस्तुनतुनिया का पतन
1453 ई० में उस्मानी तुर्कों ने कुस्तुनतुनिया पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया| उस समय कुस्तुनतुनिया ज्ञान-विज्ञानं का केन्द्र था| यहाँ पर अनेक विद्वान, साहित्यकार, इतिहासकार, आदि रहते थे| कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों का अधिकार स्थापित होने के बाद ये विद्वान, साहित्यकार, इतिहासकार, आदि यहाँ से भागकर यूरोप के अन्य देशों में आ गए|
यहाँ आकर उन्होंने ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया| उन्होंने लोगों का ध्यान प्राचीन ज्ञान और साहित्य की तरफ आकृष्ट किया| इससे लोगों में प्राचीन ज्ञान और साहित्य के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होने लगी| इस दौर में प्राचीन रोमन और यूनानी साहित्य बड़ी जिज्ञासा और चाव के साथ पड़ा जाने लगा| यही जिज्ञासा ‘पुनर्जागरण’ अर्थात ‘रिनेशा’ की आत्मा थी|
कुस्तुनतुनिया पर अधिकार करने के बाद उस्मानी तुर्कों ने यूरोप और पूर्वी देशों के बीच व्यापारिक समुद्री मार्गों को बन्द कर दिया| जिससे वहाँ के निवासियों को व्यापार में कठनाईयां होने लगीं| इस समय कुछ साहसी और निडर नाविकों ने पश्चिम की ओर यात्रा करके पूर्वी देशों तक पहुँचने का प्रयास किया| इससे लोगों को इस बात का ज्ञान प्राप्त हुआ कि पृथ्वी गोल है और पश्चिम की ओर यात्रा करके भी पूर्वी देशों तक पहुँचा जा सकता है|
अज्ञात अटलांटिक महासागर ने इन नाविकों को अपनी ओर आकर्षित किया| अब इसका प्रयोग करके बड़ी-बड़ी समुद्री यात्राएँ होने लगीं| यही काल नए देशों और महाद्वीपों की खोज का समय था| इसी क्रम में पुर्तगाली यात्री वास्को-डी-गामा, कोलम्बस, मैगलन, आदि जैसे प्रसिद्ध नाविकों और खोजकर्ताओं ने बड़ी-बड़ी और लम्बी-लम्बी यात्राएँ करके अनेक नए देशों की खोजें की|
प्राचीन साहित्य की खोज
13वीं और 14वीं शताब्दियों में विद्वानों ने प्राचीन साहित्य को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया| इनमें ‘पेट्राक’, ‘दांते’, ‘बेकन’, आदि विद्वान उल्लेखनीय हैं| इन विद्वानों ने प्राचीन ग्रन्थों और साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया और लोगों को इनसे परिचित कराने के प्रयास भो किये| ‘पेट्राक’ की लेखनी के चलते ही उन्हें “मानवतावाद का पिता” कहा जाता है|
प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों की छपाई
14वीं शताब्दी में प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों से ज्ञान की प्राप्ति में उस समय यूरोपीय देशों में स्थापित हो रहे प्रिंटिंग प्रेसों / छपाई कारखानों का भी अहम् योगदान था| ये प्रिंटिंग प्रेस और छपाई कारखाने इन प्राचीन ग्रन्थों और साहित्य और इनके विभिन्न अनुवादों की कई सारी प्रतियों की छपाई किया करते थे और उन्हें यूरोप और अन्य देशों तक पहुँचाया करते थे|
जिससे इन प्राचीन ग्रन्थों और साहित्यिक कृतियों की प्रतियों की संख्या में वृद्धि होने लगी| इस काल में यूरोपीय देशों में स्थापित हो रहे विभिन्न प्रिंटिंग प्रेस और छपाई कारखानों के द्वारा इन प्राचीन ग्रन्थों की बड़ी संख्या में प्रतियाँ प्रकाशित करने के कारण ये अब पहले से अधिक सस्ते भी हो गये|
जिसके परिणामस्वरूप अब आम आदमी की पहुँच भी इन प्राचीन साहित्यिक कृतियों और ग्रन्थों तक होने लगी| जिसका परिणाम हुआ कि अब ये प्राचीन ग्रन्थ और साहित्य और इनके विभिन्न भाषाओं में अनुवाद शोधकर्ताओं, विद्यार्थियों और आम जनता के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति तक आसानी से पहुँचने लगे| जिससे ज्ञान का प्रचार-प्रसार धीरे-धीरे यूरोप के देशों के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व में होने लगा|
मानवतावादी विचारधारा का प्रभाव
यूरोप की मध्यकालीन सभ्यता कृतिमता और कोरे आदर्शों पर आधारित थी| इस काल में सांसारिक जीवन को झूट बतलाया जाता था| यूरोप के विश्वविद्यालयों में यूनानी दर्शन का अध्ययन-अध्यापन होता था| ‘रोजर बेकन’ ने ‘अरस्तु’ की ‘प्रधानता’ का विरोध किया और ‘तर्कवाद के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया| इससे ‘मानवतावाद’ का विकास हुआ|
‘मानवतावादियों’ ने सामंती व्यवस्था और चर्च एवं उसके पादरियों के कट्टरपन की आलोचना की| इस समय लोग चर्च, पादरियों और सामंतों के द्वारा बनाये गए नियमों और उनकी बातों पर अन्धविश्वास करते थे| परन्तु, ‘पुनर्जागरण’ काल में ज्ञान प्राप्ति के बाद, अब ये लोग सामंती व्यवस्था और चर्च के पादरियों पर संदेह व्यक्त करने लगे और उनकी आलोचनायें भी होने लगीं| जिससे चर्च और सामंती व्यवस्था को गहरा झटका लगा|
इस काल में कला, साहित्य, विज्ञानं, दर्शनशास्त्र, खगोलशास्त्र जैसे विषयों में ज्ञान रखने वाले लोग ‘मानवतावादी विचारधारा’ वाले थे| इन लोगों ने यूरोप एवं अन्य देशों में प्राथमिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की| ये लोग इन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को प्राचीन रोमन और यूनानी दर्शन, प्राचीन साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शनशास्त्र, खगोलशास्त्र, आदि जैसे विषयों का अध्ययन कराते थे| ये स्कूल और विश्वविद्यालय प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति के लिए खुले थे|
नवीन देशों की खोज
‘पुनर्जागरण काल’ में एक प्रमुख और महत्वपूर्ण घटना नवीन देशों की खोजें थीं| इस समय के कई साहसिक एवं निडर नाविकों ने लम्बी-लम्बी समुद्री यात्राएं करके कई नवीन देशों की खोज करी थी| इनमे ‘वास्को-डी-गामा’, ‘कोलम्बस’ और’मैगलन’ प्रमुख थे| इन खोजों का प्रमुख कारण कुस्तुनतुनिया के लोगों के द्वारा अपने व्यापर को बढ़ाना था|
परन्तु, कल रात में एक किताब पढ़ते-पढ़ते मुझे इतिहास से सम्बन्धित कुछ लिखने का मन किया, तो मैं रात्रि में ही ये लेख लिखने बैठ गया| इसका कुछ भाग मेने रात्रि में पूर्ण किया और कुछ आज सुबह| और अब ये लेख मैं आप सब के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ| जैसा कि आपको इस लेख के टाइटल से पता चल ही गया होगा कि आजका यह लेख ‘पुनर्जागरण’ अर्थात “पुनर्जागरण आन्दोलन” पर आधारित है|
‘पुनर्जागरण’ अर्थात् ‘रिनेशा’ का विश्व इतिहास में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है| ‘पुनर्जागरण’ का प्रारम्भ यूरोपीय देशों से हुआ और धीरे-धीरे इसका प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हुआ, जिसने लोगों को पुरानी विचारधारा से ऊपर उठकर, ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित किया और जन मानस में एक नयी चेतना का प्रसार किया|
तो, क्या था ये ‘पुनर्जागरण’? इसका विकास कैसे हुआ? और इसके विभिन्न चरण क्या थे? आज के इस लेख में हम इन्ही तथ्यों का अध्ययन करेंगे| तो, आइये विस्तार से जानते हैं, क्या था ‘पुनर्जागरण’?
परिचय
‘पुनर्जागरण’ अथवा ‘रिनेशा’ का शाब्दिक अर्थ होता है, “फिर से जागना”| 14वीं और 15वीं शताब्दी के बीच यूरोप में जो सांस्कृतिक प्रगति हुयी, उसे ही “पुनर्जागरण” कहते हैं| इसके फलस्वरूप जीवन के हर क्षेत्र में एक नयी चेतना आई| यह आन्दोलन केवल पुराने ज्ञान के उद्धार तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इस युग में कला, साहित्य, विज्ञानं, खगोलशास्त्र, आदि विषयों में कई नवीन प्रयोग भी हुए| नए अनुसन्धान हुए और ज्ञान प्राप्ति के नए-नए रास्ते खोज निकले गए| इसने ‘परलोकवाद’ और ‘धर्मंवाद’ के स्थान पर ‘मानवतावाद’ को स्थापित किया|
अब लोग ज्ञान के आधार पर अपने सामंती संघटनों और चर्च के द्वारा बनाये गए नियमों पर संदेह करने लगे| इसके परिणामस्वरूप “वैज्ञानिक पद्वति” का जन्म हुआ| अब यूरोप वासियों ने सामंतों और चर्च द्वारा स्थापित किये गए अन्धविश्वास से पूर्ण नियमों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया| जिससे चर्च और सामंती व्यवस्था को बड़ा झटका लगा|
पुनर्जागरण वह आन्दोलन था, जिसके द्वारा पश्चिमी राष्ट्र मध्य युग से निकलकर आधुनिक युग के विचार और जीवन शैली अपनाने लगे| यूरोप के निवासियों ने भौगोलिक, सामाजिक, व्यावसायिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों में प्रगति की| इस युग के लोगों ने पुरानी संकीर्ण सोच को त्यागते हुए स्वयं को नवीन खोजों, नवीन आविष्कारों, नवीनतम विचारों, साहित्य रचना, नवीन दृष्टिकोण, आदि में विकसित किया|
इस प्रकार ‘पुनर्जागरण’ उस ‘बौद्धिक आन्दोलन’ का नाम है, जिसने रोम और यूनान की प्राचीन सभ्यता / संस्कृति का पुनरुद्धार कर नयी चेतना को जन्म दिया|
कुस्तुनतुनिया का पतन
1453 ई० में उस्मानी तुर्कों ने कुस्तुनतुनिया पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया| उस समय कुस्तुनतुनिया ज्ञान-विज्ञानं का केन्द्र था| यहाँ पर अनेक विद्वान, साहित्यकार, इतिहासकार, आदि रहते थे| कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों का अधिकार स्थापित होने के बाद ये विद्वान, साहित्यकार, इतिहासकार, आदि यहाँ से भागकर यूरोप के अन्य देशों में आ गए|
यहाँ आकर उन्होंने ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया| उन्होंने लोगों का ध्यान प्राचीन ज्ञान और साहित्य की तरफ आकृष्ट किया| इससे लोगों में प्राचीन ज्ञान और साहित्य के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होने लगी| इस दौर में प्राचीन रोमन और यूनानी साहित्य बड़ी जिज्ञासा और चाव के साथ पड़ा जाने लगा| यही जिज्ञासा ‘पुनर्जागरण’ अर्थात ‘रिनेशा’ की आत्मा थी|
कुस्तुनतुनिया पर अधिकार करने के बाद उस्मानी तुर्कों ने यूरोप और पूर्वी देशों के बीच व्यापारिक समुद्री मार्गों को बन्द कर दिया| जिससे वहाँ के निवासियों को व्यापार में कठनाईयां होने लगीं| इस समय कुछ साहसी और निडर नाविकों ने पश्चिम की ओर यात्रा करके पूर्वी देशों तक पहुँचने का प्रयास किया| इससे लोगों को इस बात का ज्ञान प्राप्त हुआ कि पृथ्वी गोल है और पश्चिम की ओर यात्रा करके भी पूर्वी देशों तक पहुँचा जा सकता है|
अज्ञात अटलांटिक महासागर ने इन नाविकों को अपनी ओर आकर्षित किया| अब इसका प्रयोग करके बड़ी-बड़ी समुद्री यात्राएँ होने लगीं| यही काल नए देशों और महाद्वीपों की खोज का समय था| इसी क्रम में पुर्तगाली यात्री वास्को-डी-गामा, कोलम्बस, मैगलन, आदि जैसे प्रसिद्ध नाविकों और खोजकर्ताओं ने बड़ी-बड़ी और लम्बी-लम्बी यात्राएँ करके अनेक नए देशों की खोजें की|
प्राचीन साहित्य की खोज
13वीं और 14वीं शताब्दियों में विद्वानों ने प्राचीन साहित्य को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया| इनमें ‘पेट्राक’, ‘दांते’, ‘बेकन’, आदि विद्वान उल्लेखनीय हैं| इन विद्वानों ने प्राचीन ग्रन्थों और साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया और लोगों को इनसे परिचित कराने के प्रयास भो किये| ‘पेट्राक’ की लेखनी के चलते ही उन्हें “मानवतावाद का पिता” कहा जाता है|
प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों की छपाई
14वीं शताब्दी में प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों से ज्ञान की प्राप्ति में उस समय यूरोपीय देशों में स्थापित हो रहे प्रिंटिंग प्रेसों / छपाई कारखानों का भी अहम् योगदान था| ये प्रिंटिंग प्रेस और छपाई कारखाने इन प्राचीन ग्रन्थों और साहित्य और इनके विभिन्न अनुवादों की कई सारी प्रतियों की छपाई किया करते थे और उन्हें यूरोप और अन्य देशों तक पहुँचाया करते थे|
जिससे इन प्राचीन ग्रन्थों और साहित्यिक कृतियों की प्रतियों की संख्या में वृद्धि होने लगी| इस काल में यूरोपीय देशों में स्थापित हो रहे विभिन्न प्रिंटिंग प्रेस और छपाई कारखानों के द्वारा इन प्राचीन ग्रन्थों की बड़ी संख्या में प्रतियाँ प्रकाशित करने के कारण ये अब पहले से अधिक सस्ते भी हो गये|
जिसके परिणामस्वरूप अब आम आदमी की पहुँच भी इन प्राचीन साहित्यिक कृतियों और ग्रन्थों तक होने लगी| जिसका परिणाम हुआ कि अब ये प्राचीन ग्रन्थ और साहित्य और इनके विभिन्न भाषाओं में अनुवाद शोधकर्ताओं, विद्यार्थियों और आम जनता के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति तक आसानी से पहुँचने लगे| जिससे ज्ञान का प्रचार-प्रसार धीरे-धीरे यूरोप के देशों के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व में होने लगा|
मानवतावादी विचारधारा का प्रभाव
यूरोप की मध्यकालीन सभ्यता कृतिमता और कोरे आदर्शों पर आधारित थी| इस काल में सांसारिक जीवन को झूट बतलाया जाता था| यूरोप के विश्वविद्यालयों में यूनानी दर्शन का अध्ययन-अध्यापन होता था| ‘रोजर बेकन’ ने ‘अरस्तु’ की ‘प्रधानता’ का विरोध किया और ‘तर्कवाद के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया| इससे ‘मानवतावाद’ का विकास हुआ|
‘मानवतावादियों’ ने सामंती व्यवस्था और चर्च एवं उसके पादरियों के कट्टरपन की आलोचना की| इस समय लोग चर्च, पादरियों और सामंतों के द्वारा बनाये गए नियमों और उनकी बातों पर अन्धविश्वास करते थे| परन्तु, ‘पुनर्जागरण’ काल में ज्ञान प्राप्ति के बाद, अब ये लोग सामंती व्यवस्था और चर्च के पादरियों पर संदेह व्यक्त करने लगे और उनकी आलोचनायें भी होने लगीं| जिससे चर्च और सामंती व्यवस्था को गहरा झटका लगा|
इस काल में कला, साहित्य, विज्ञानं, दर्शनशास्त्र, खगोलशास्त्र जैसे विषयों में ज्ञान रखने वाले लोग ‘मानवतावादी विचारधारा’ वाले थे| इन लोगों ने यूरोप एवं अन्य देशों में प्राथमिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की| ये लोग इन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को प्राचीन रोमन और यूनानी दर्शन, प्राचीन साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शनशास्त्र, खगोलशास्त्र, आदि जैसे विषयों का अध्ययन कराते थे| ये स्कूल और विश्वविद्यालय प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति के लिए खुले थे|
नवीन देशों की खोज
‘पुनर्जागरण काल’ में एक प्रमुख और महत्वपूर्ण घटना नवीन देशों की खोजें थीं| इस समय के कई साहसिक एवं निडर नाविकों ने लम्बी-लम्बी समुद्री यात्राएं करके कई नवीन देशों की खोज करी थी| इनमे ‘वास्को-डी-गामा’, ‘कोलम्बस’ और’मैगलन’ प्रमुख थे| इन खोजों का प्रमुख कारण कुस्तुनतुनिया के लोगों के द्वारा अपने व्यापर को बढ़ाना था|
1453 ई० में जब उस्मानी तुर्कों ने कुस्तुनतुनिया पर आक्रमण करके अधिकार करने के बाद यूरोप और पूर्वी देशों को जाने वाले रास्तों को बंद कर दिया, तब इन लोगों को अपने व्यापार में काफी हानि का सामना करना पड़ा| जिसके परिणामस्वरूप कुछ साहसी और निडर नाविकों ने पश्चिम की ओर समुद्री यात्राएं करने का जोखिम उठाया| अब अज्ञात अटलांटिक सागर बड़ी-बड़ी और लम्बी समुद्री यात्राएं होने लगीं| पश्चिम की ओर यात्रा करके ये नाविक पूर्वी देशों में पहुँचे और व्यापार किया| इनमें से कुछ नाविकों ने अपनी समुद्री यात्राओं के दौरान नए देशों की खोज भी की|
1498 ई० में पुर्तगाली यात्री ‘वास्को-डी-गामा’ भारत में कालीकट के तट पर पहुँचा था| उसने भारत की खोज की तथा भारत में अपने व्यापारिक उपनिवेश भी स्थापित किये| 1492 ई० में ‘कोलम्बस’ नामक समुद्री यात्री ने अपनी समुद्री यात्रा के दौरान ‘अमेरिका द्वीप’ की खोज की थी| उस समय इस नयी दुनियाँ के विषय में पाता चलना एक ऐतिहासिक घटना थी|
धर्मसुधार आन्दोलन का आरम्भ
16वीं शताब्दी के प्रारंभ में, यद्दपि सामान्यतः ईसाइयों पर कैथोलिक धर्म का प्रभाव निरन्तर बना रहा| परन्तु, सांस्कृतिक पुनरुथान के परिणामस्वरूप सर्व-साधारण में स्वतन्त्र चिंतन एवं धार्मिक विषयों के वैज्ञानिक अध्ययन प्रारम्भ हो गया था| ‘पुनर्जागरण’ के फलस्वरूप यूरोप के विभिन्न राज्यों में लोक भाषाओं एवं राष्ट्रीय साहित्य का विकास आरम्भ हुआ|
सर्व-साधारण जनता ने क्लिष्ट एवं जटिल लैटिन भाषा का परित्याग करके अपनी मातृभाषा और स्थानीय लोक भाषाओं में रचित सरल और बोधगम्य रचनाओं और साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया| 1517 ई० में ‘लूथर 95’ प्रसंग प्रकाशित हुये, जिसके फलस्वरूप ‘धर्मसुधार आन्दोलन’ का आरम्भ हुआ| सांस्कृतिक पुनर्जागरण द्वारा जटिल साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शनशास्त्र, खगोलशास्त्र एवं वौद्धिक जागृति जैसे विषयों ने सर्व-साधारण जनता को एक नयी स्फूर्ति प्रदान की और जिज्ञासा एवं चिंतन से परिचित करवाया|
अतः सदियों से प्रचलित कैथोलिक धर्मं के निर्देशों एवं अधिकारों को मानने के लिए अब लोग तैयार नहीं थे| अब ये लोग कैथोलिक चर्च क्र अधिकारों और निर्देशों का विरोध करने लगे, क्योंकि कैथोलिक चर्च का स्तर काफी नीचे गिर गया था| अब चर्च के पादरियों और सामंती व्यवस्था की कटु-आलोचनायें होने लगी थीं|
16वीं सदी के प्रारम्भ में उत्पन्न हुयी नवीन जागृति ने एक महान धार्मिक क्रान्ति कड़ी कर दी, जिसके परिणामस्वरूप सामंती व्यवस्था एवं कैथोलिक चर्च के विरुद्ध सशस्त्र एवं सक्रिय विरोध आन्दोलन प्रारम्भ हो गए| यही आन्दोलन ‘धर्मसुधार आन्दोलन’ के नाम से प्रसिद्ध है| ‘मार्टिन लूथर’ के द्वारा जर्मन भाषा में धर्मं-ग्रन्थ ‘बाईबिल’ का अनुवाद और प्रकाशन ‘धर्म सुधार’ एवं ‘प्रोटेस्टेंट आन्दोलन’ के लिए सबसे महत्वपूर्ण एवं सहायक कारण साबित हुआ|
दोस्तों, आशा है कि ‘पुनर्जागरण’ अर्थात ‘रिनेशा’ विषय पर मेरे द्वारा लिखा गया यह लेख आप सभी पाठकों को अवश्य पसन्द आया होगा| अगर आपको मेरा यह लेख अच्छा लगा हो, तो कृपया अपनी ईमेल के द्वारा मेरे ब्लोग्स को सब्सक्राइब करें, जिससे मेरी वेबसाइट पर प्रकाशित होने वाले किसी भी नए लेख की नोटिफिकेशन आपको ईमेल के द्वारा प्राप्त हो सके| यदि इस लेख को लिखते समय मुझसे कोई त्रुटी हो गयी हो या आप इस लेख से सम्बन्धित कोई सुझाव देना चाहते हो, तो कृपया कमेंट्स के माध्यम से अपने सुझाब व्यक्त करें| और मेरे लेख का लिंक ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ शेयर करें|
अभी के लिए इस लेख में बस इतना ही| मिलते हैं, एक नए लेख के साथ| तब तक के लिए खुश रहिये, स्वस्थ रहिये, सुरक्षित रहिये और पढ़ते रहिये|
My book Pracheen Vishva Ki Pramukh Nadi Ghati Sabhaytayein/प्राचीन विश्व की प्रमुख नदी घाटी सभ्यताएं (Hindi Edition) Kindle Edition
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1498 ई० में पुर्तगाली यात्री ‘वास्को-डी-गामा’ भारत में कालीकट के तट पर पहुँचा था| उसने भारत की खोज की तथा भारत में अपने व्यापारिक उपनिवेश भी स्थापित किये| 1492 ई० में ‘कोलम्बस’ नामक समुद्री यात्री ने अपनी समुद्री यात्रा के दौरान ‘अमेरिका द्वीप’ की खोज की थी| उस समय इस नयी दुनियाँ के विषय में पाता चलना एक ऐतिहासिक घटना थी|
धर्मसुधार आन्दोलन का आरम्भ
16वीं शताब्दी के प्रारंभ में, यद्दपि सामान्यतः ईसाइयों पर कैथोलिक धर्म का प्रभाव निरन्तर बना रहा| परन्तु, सांस्कृतिक पुनरुथान के परिणामस्वरूप सर्व-साधारण में स्वतन्त्र चिंतन एवं धार्मिक विषयों के वैज्ञानिक अध्ययन प्रारम्भ हो गया था| ‘पुनर्जागरण’ के फलस्वरूप यूरोप के विभिन्न राज्यों में लोक भाषाओं एवं राष्ट्रीय साहित्य का विकास आरम्भ हुआ|
सर्व-साधारण जनता ने क्लिष्ट एवं जटिल लैटिन भाषा का परित्याग करके अपनी मातृभाषा और स्थानीय लोक भाषाओं में रचित सरल और बोधगम्य रचनाओं और साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया| 1517 ई० में ‘लूथर 95’ प्रसंग प्रकाशित हुये, जिसके फलस्वरूप ‘धर्मसुधार आन्दोलन’ का आरम्भ हुआ| सांस्कृतिक पुनर्जागरण द्वारा जटिल साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शनशास्त्र, खगोलशास्त्र एवं वौद्धिक जागृति जैसे विषयों ने सर्व-साधारण जनता को एक नयी स्फूर्ति प्रदान की और जिज्ञासा एवं चिंतन से परिचित करवाया|
अतः सदियों से प्रचलित कैथोलिक धर्मं के निर्देशों एवं अधिकारों को मानने के लिए अब लोग तैयार नहीं थे| अब ये लोग कैथोलिक चर्च क्र अधिकारों और निर्देशों का विरोध करने लगे, क्योंकि कैथोलिक चर्च का स्तर काफी नीचे गिर गया था| अब चर्च के पादरियों और सामंती व्यवस्था की कटु-आलोचनायें होने लगी थीं|
16वीं सदी के प्रारम्भ में उत्पन्न हुयी नवीन जागृति ने एक महान धार्मिक क्रान्ति कड़ी कर दी, जिसके परिणामस्वरूप सामंती व्यवस्था एवं कैथोलिक चर्च के विरुद्ध सशस्त्र एवं सक्रिय विरोध आन्दोलन प्रारम्भ हो गए| यही आन्दोलन ‘धर्मसुधार आन्दोलन’ के नाम से प्रसिद्ध है| ‘मार्टिन लूथर’ के द्वारा जर्मन भाषा में धर्मं-ग्रन्थ ‘बाईबिल’ का अनुवाद और प्रकाशन ‘धर्म सुधार’ एवं ‘प्रोटेस्टेंट आन्दोलन’ के लिए सबसे महत्वपूर्ण एवं सहायक कारण साबित हुआ|
दोस्तों, आशा है कि ‘पुनर्जागरण’ अर्थात ‘रिनेशा’ विषय पर मेरे द्वारा लिखा गया यह लेख आप सभी पाठकों को अवश्य पसन्द आया होगा| अगर आपको मेरा यह लेख अच्छा लगा हो, तो कृपया अपनी ईमेल के द्वारा मेरे ब्लोग्स को सब्सक्राइब करें, जिससे मेरी वेबसाइट पर प्रकाशित होने वाले किसी भी नए लेख की नोटिफिकेशन आपको ईमेल के द्वारा प्राप्त हो सके| यदि इस लेख को लिखते समय मुझसे कोई त्रुटी हो गयी हो या आप इस लेख से सम्बन्धित कोई सुझाव देना चाहते हो, तो कृपया कमेंट्स के माध्यम से अपने सुझाब व्यक्त करें| और मेरे लेख का लिंक ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ शेयर करें|
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